बनारस में चैत्र नवरात्री के दुर्गा सप्तमी तिथि को आधी रात में मणिकर्णिका घाट महाश्मशान पर जलती चिताओं के बीच होता है कुछ खास

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वाराणसी:- पौराणिक मान्यताओं के आधार पर कहें तो महादेव के त्रिशूल पर बसी वाराणसी अपने आप में बहुत से रहस्यों को समेटे हुए है। जहां हर गली-चौराहे में इतिहास और आस्था की कहानियां गूंजती हैं, वहां मणिकर्णिका घाट पर शुक्रवार को एक ऐसी रात का नजारा देखने को मिला, जिसने आत्मा को झकझोर दिया। चैत्र नवरात्र की सप्तमी की अंतिम निशा में, जब महाश्मशान महोत्सव अपने चरम पर पहुंचा, जलती चिताओं के बीच नगरवधुओं के पैरों के घुंघरू रात भर झनझनाते रहे। ये घुंघरू सिर्फ नृत्य की थाप नहीं, बल्कि मुक्ति की गुहार थे, जो बाबा मसाननाथ के चरणों तक पहुंचने की कोशिश में टूटते और बिखरते रहे।

रात के सन्नाटे में, जब शवयात्रियों की भीड़ चिताओं की लपटों को निहार रही थी, नगरवधुओं ने अपने नृत्य से एक अनोखा कौतुहल जगा दिया। काशी की यह प्राचीन परंपरा सदियों से धधक रही है, जैसे कोई अनवरत जलती लौ। बाबा मसाननाथ का प्रांगण रजनीगंधा, गुलाब और अन्य सुगंधित फूलों से सजाया गया था। एक ओर चिताओं की आग की तपिश थी, तो दूसरी ओर डोमराज की मढ़ी के नीचे नगरवधुओं के घुंघरुओं की मधुर झंकार गूंज रही थी। यह दृश्य विरोधाभासों का अनोखा संगम था—मृत्यु और जीवन, शोक और संगीत, भक्ति और मुक्ति की चाह।

इस रात बाबा को तंत्रोक्त विधान से पंचमकार का भोग लगाया गया और भव्य आरती की गई। नगरवधुओं ने बाबा को रिझाने के लिए भजन गाए—“दुर्गा दुर्गति नाशिनी”, “दिमिग दिमिग डमरू कर बाजे”, “डिम डिम तन दिन दिन” जैसे स्वरों से माहौल गूंज उठा। “ओम नमः शिवाय” और “मणिकर्णिका स्तोत्र” के बाद “खेलें मसाने में होरी” जैसी रचनाएं गूंजीं। ठुमरी और चैती के सुरों के साथ उन्होंने बाबा के चरणों में अपनी गीतांजलि अर्पित की। यह नृत्य और संगीत महज प्रदर्शन नहीं, बल्कि उनकी आत्मा की पुकार था—एक बेहतर अगले जन्म की उम्मीद।

इस परंपरा की जड़ें इतिहास में गहरे धंसी हैं। महाश्मशान सेवा समिति के अध्यक्ष चंद्रिका प्रसाद गुप्ता उर्फ चैनु साव बताते हैं कि मान्यता है कि अकबर के नवरत्नों में से एक राजा मानसिंह ने काशी में बाबा मसाननाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था। उस दौर में राजा एक सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करना चाहते थे, लेकिन कोई भी कलाकार श्मशान में प्रदर्शन के लिए तैयार नहीं हुआ। तब काशी की नगरवधुओं ने यह जिम्मा उठाया और अपनी कला से बाबा के दरबार को सजाया। यहीं से यह परंपरा शुरू हुई, जो आज तक कायम है। हर साल चैत्र नवरात्र की सातवीं रात को यह उत्सव काशी की श्मशान भूमि पर जीवंत हो उठता है।

नगरवधु शीला की बातें इस रात के मर्म को और गहरा देती हैं। वह कहती हैं, “हम हर साल बाबा के दरबार में नृत्य करते हैं और प्रार्थना करते हैं कि अगले जन्म में हमें इस जीवन से मुक्ति मिले।” उनके घुंघरुओं की हर झंकार एक दुआ है, हर थाप एक उम्मीद। यह महाश्मशान महोत्सव सिर्फ एक आयोजन नहीं, बल्कि काशी की उस अनोखी संस्कृति का प्रतीक है, जहां मृत्यु के बीच जीवन नृत्य करता है और मुक्ति की चाह कभी सोती नहीं।

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