02/11/25:- हम सभी जानते हैं कि आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी से कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तक की चार महीनों की कालावधि “चातुर्मास” के नाम से जानी जाती है।
आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी ” देवशयनी एकादशी ” कहलाती है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार देवशयनी एकादशी के दिन से सृष्टि के पालक भगवान श्रीहरि विष्णु चातुर्मास योग-निद्रा में चले जाते हैं।
जगत पालक के साथ-साथ अन्य देव शक्तियां भी प्रसुप्त अवस्था में आ जाती हैं। अतः चातुर्मास में देवताओं के सो जाने का तर्क सामने रखकर मुंडन , यज्ञोपवीत , पाणिग्रहण संस्कार , गृह प्रवेश आदि मांगलिक कार्यों के निषेध का विधान है।
उपर्युक्त चार महीनों को वर्षा-काल के रूप में गिना जाता था। अतः गुरुओं एवं संतो के लिए ये चार महीने विश्राम – काल बन जाते थे। किसी एक स्थान पर ठहर कर वे इस कालावधि को साधना-काल के रूप में प्रयोग करते थे।
कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी “देवउठनी एकादशी” कहलाती है। यह वह पवित्र दिन होता है , जब भगवान विष्णु 4 महीने की योगनिद्रा के बाद उठते (जागते) हैं। अतः इसे ” देवउठनी एकादशी ” के नाम से जाना जाता है।
चार महीनों से निषिद्ध सारे शुभ संस्कार एवं मंगलमय कार्य पुनः इस तिथि से प्रारंभ हो जाते हैं। सनातन हिंदू समाज में देवउठनी एकादशी प्रत्येक वर्ष अत्यंत श्रद्धा और पवित्रता के साथ मनाई जाती है।
‘तुलसी विवाह का प्रसंग‘
पुराणों में ऐसा उल्लेख है कि एक कल्प में जलंधर नामक महाबली दैत्य हुआ। वह देवताओं को दु:ख देता था। तब देवताओं के कष्ट को देखकर शिवजी ने उस दैत्य से घोर संग्राम किया , फिर भी वह मरता नहीं था। तुलसीदास जी बालकाण्ड में इसका कारण बताते हुए लिखते हैं –
परम सती असुराधिप नारी।
तेहि बल ताहि न जितहिं पुरारी।।
दानवराज जलंधर की पत्नी वृंदा पतिव्रता थी। उसके पातिव्रत्य – बल के कारण त्रिपुर जैसे असुर का नाश करनेवाले महादेव भी उस दैत्य को जीत नहीं पा रहे थे।
तब भगवान विष्णु ने छल करके देवताओं का कार्य करने के लिए वृंदा के पातिव्रत्य-धर्म का नाश कर दिया।
छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह।
जब तेहिं जानें मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह।।
पातिव्रत्य-धर्म के नाश होते ही दैत्य जलंधर मारा गया। अतः वृंदा ने क्रोध में भगवान को जड़ होने का शाप दे दिया। शाप के कारण सर्वसमर्थ होते हुए भी भगवान शालिग्राम रूप में धरा पर प्रकट हुए।
एक समय वृंदा ने भगवान विष्णु को अपने पति के रूप में चाहा था। उसकी मनोकामना को पूर्ण करने के लिए भगवान ने उसका शाप भी स्वीकार किया। वृंदा ने अपना सतीत्व नष्ट हो जाने से अपने शरीर को दूषित मानकर अग्नि में भस्म कर दिया। सती की चिता की भस्म से ” तुलसी ” की उत्पत्ति हुई। इस तुलसी रूप में प्रभु ने उसे अपनाया।
अपने पातिव्रत्य के प्रभाव से वृंदा ” तुलसी ” होकर भगवान विष्णु की अर्धांगिनी बनी। कार्तिक शुक्ल एकादशी को ही तुलसी का पाणिग्रहण संस्कार भगवान विष्णु के साथ हुआ था।
भगवान को तुलसी इतनी प्रिय लगी कि बिना उसके शालिग्राम की पूजा ही नहीं होती। इसी प्रसंग की ओर तुलसीदास जी संकेत करते हुए अरण्यकांड में लिखते हैं –
अजहुं तुलसिका हरिहि प्रिय।
जहां विष्णु सहस्त्रनाम में भगवान का एक नाम “तुलसीवल्लभ” है , तो वहीं तुलसी भी ” विष्णुप्रिया ” के नाम से जानी जाती है।
नवीन भारत समाचार परिवार की ओर से आपको देवउठनी एकादशी एवं शुभ तुलसी- विवाह की हार्दिक शुभकामनाएं🙏
